
पटना: बिहार की राजनीति में दलित वोटों को लेकर खींचतान तेज हो गई है। एनडीए और महागठबंधन के बीच इस वर्ग को साधने की होड़ जारी है। ऐसे में भीम आर्मी प्रमुख और आजाद समाज पार्टी के अध्यक्ष चंद्रशेखर आज़ाद ने बिहार विधानसभा चुनाव में उतरने का ऐलान कर राजनीतिक गलियारों में हलचल मचा दी है।
पासवान-मांझी के बाद अब चंद्रशेखर की एंट्री
अब तक बिहार की दलित राजनीति रामविलास पासवान और जीतन राम मांझी जैसे नेताओं के इर्द-गिर्द घूमती रही है। लेकिन पासवान अब नहीं रहे, लोजपा में टूट हो चुकी है और मांझी की राजनीतिक पकड़ सीमित होती जा रही है। ऐसे में चंद्रशेखर की एंट्री को दलित राजनीति में वैकल्पिक नेतृत्व के रूप में देखा जा रहा है।
राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि दलित वोट बैंक को अब एक नया चेहरा मिल सकता है, जो विशेषकर युवाओं और आंदोलनकारी वर्ग में अपनी पकड़ बना रहा है।
दलित वोटों का समीकरण
बिहार में दलित आबादी करीब 20% है, जिसमें सबसे बड़ा हिस्सा रविदास (31%) और पासवान/दुसाध (30%) समुदाय का है। इसके अलावा मुसहर या मांझी समुदाय के लोग भी करीब 14% हैं। अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित 38 सीटों में से एनडीए के पास 21 और महागठबंधन के पास 17 हैं।
चंद्रशेखर आज़ाद यदि इन जातियों को एकजुट कर पाने में सफल होते हैं तो यह कई सीटों पर समीकरण बदल सकता है।
मायावती और ओवैसी से क्या फर्क पड़ेगा?
मायावती की बहुजन समाज पार्टी का बिहार में प्रभाव सीमित है और वह खासकर उत्तर प्रदेश से सटे जिलों कैमूर, रोहतास, बक्सर के कुछ विधानसभा क्षेत्रों में सक्रिय रही है। हालांकि 2020 के चुनाव में बीएसपी और ओवैसी की AIMIM ने मिलकर तीसरा मोर्चा (GDSF) बनाया था, लेकिन नतीजे बेहद निराशाजनक रहे।
अब मायावती ने एलान कर दिया है कि वे किसी गठबंधन में नहीं जाएंगी और अकेले चुनाव लड़ेंगी। इससे ओवैसी की थर्ड फ्रंट की कोशिशें कमजोर होती दिख रही हैं।
परंपरागत दलों के लिए चुनौती
चंद्रशेखर का चुनावी मैदान में आना कांग्रेस, राजद और जेडीयू जैसी पार्टियों के लिए सीधी चुनौती बन सकता है। इन दलों ने अब तक दलित वोट बैंक को अपने-अपने सामाजिक समीकरणों से साधा है, लेकिन चंद्रशेखर यदि दलित-मुस्लिम एकता का फॉर्मूला लेकर आएं, तो समीकरणों में बड़ा बदलाव हो सकता है।
क्या होगा असर?
जेएनयू के प्रोफेसर हरीश एस वानखेड़े का मानना है कि बिहार में दलित अब भी आर्थिक और सामाजिक असमानताओं में फंसे हैं और उनका राजनीतिक प्रभाव उप-जातिगत विभाजन के चलते बिखरा हुआ है। यदि चंद्रशेखर इस बिखराव को एकजुटता में बदल पाते हैं तो यह बिहार की राजनीति में दलितों के लिए नया अध्याय होगा।
हालांकि, यदि वे सफल नहीं होते, तब भी एक बात तय है— दलित वोटों का बिखराव होगा, जिससे अप्रत्यक्ष रूप से बीजेपी जैसे संगठित दलों को लाभ मिल सकता है।
बिहार की राजनीति में चंद्रशेखर आज़ाद की एंट्री सिर्फ एक चुनावी दांव नहीं, बल्कि दलित नेतृत्व के पुनर्गठन की शुरुआत भी हो सकती है। अब देखना ये होगा कि क्या वे मायावती का विकल्प बनकर उभरते हैं या मौजूदा समीकरणों में महज एक ‘फैक्टर’ बनकर रह जाते हैं। बिहार चुनाव 2025 इस सवाल का जवाब तय करेगा।