
लखनऊ: उत्तर प्रदेश में जातिगत भेदभाव को खत्म करने की दिशा में बड़ा और ऐतिहासिक कदम उठाया गया है। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने जाति के आधार पर पहचान और सार्वजनिक जीवन में उसके महिमामंडन को ‘राष्ट्र-विरोधी’ करार देते हुए, जाति आधारित रैलियों, सरकारी दस्तावेजों में जाति का उल्लेख, और जातीय प्रतीकों के सार्वजनिक प्रदर्शन पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने का आदेश दिया है।
इस फैसले को न सिर्फ न्यायिक इतिहास में एक साहसिक पहल के रूप में देखा जा रहा है, बल्कि इसे सामाजिक समानता की ओर एक निर्णायक मोड़ के रूप में भी देखा जा रहा है।
किस मामले से शुरू हुआ ये फैसला?
पूरा मामला तब सामने आया जब एक आरोपी प्रवीण छेत्री ने शराब तस्करी के एक केस में अपनी एफआईआर में जाति ‘भील’ लिखे जाने पर आपत्ति जताई। इस पर सुनवाई करते हुए न्यायमूर्ति विनोद दिवाकर की एकल पीठ ने 19 सितंबर 2025 को एक अहम टिप्पणी करते हुए कहा:
“आज के समय में व्यक्ति की पहचान जाति से नहीं, बल्कि उसके कर्म और नाम से होनी चाहिए। जाति का प्रदर्शन सामाजिक विभाजन को बढ़ावा देता है और यह राष्ट्रविरोधी मानसिकता को जन्म देता है।“
यूपी सरकार को कड़े निर्देश
हाईकोर्ट के निर्देशों के अनुपालन में राज्य के मुख्य सचिव ने 21 सितंबर को आदेश जारी कर दिए, जिनमें शामिल हैं:
- एफआईआर, चार्जशीट, गिरफ्तारी मेमो, NCRB रिकॉर्ड्स में जाति का उल्लेख नहीं होगा।
- CCTNS सिस्टम से जाति कॉलम हटाने के लिए केंद्र को लिखा जाएगा।
- थानों, पुलिस वाहनों और सार्वजनिक स्थलों से जाति आधारित नारे, प्रतीक और संकेत हटाए जाएंगे।
- पहचान के लिए पिता के नाम के साथ-साथ माता का नाम भी अनिवार्य होगा।
जाति आधारित रैलियों और सोशल मीडिया पर सख्ती
फैसले के बाद अब उत्तर प्रदेश में:
- जाति आधारित रैली, जुलूस, सम्मेलन और अन्य आयोजन पर पूरी तरह रोक लगा दी गई है।
- सोशल मीडिया या डिजिटल प्लेटफॉर्म पर जातिगत गौरव या नफरत फैलाने वाली पोस्ट पर आईटी एक्ट के तहत सख्त कार्रवाई की जाएगी।
- प्रशासनिक स्तर पर सभी जिलाधिकारियों और पुलिस अधीक्षकों को निर्देश जारी किए जा चुके हैं कि नियमों का उल्लंघन किसी भी स्थिति में बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।
एससी/एसटी कानून को मिली छूट
हालांकि कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि एससी/एसटी एक्ट और अन्य ऐसे विशेष मामलों में जहां जाति का उल्लेख कानूनी आवश्यकता है, वहां यह आदेश लागू नहीं होगा।
समाज और राजनीति में असर की उम्मीद
इस आदेश के बाद माना जा रहा है कि उत्तर प्रदेश की राजनीति, जो दशकों से जातिगत ध्रुवीकरण पर टिकी रही है, अब एक नए सामाजिक विमर्श की ओर बढ़ सकती है। जाति के नाम पर वोट बैंक की राजनीति, आरक्षण की मांग और सामाजिक खाई को गहराने वाले आयोजन अब सीधे कानून की जद में आएंगे।
इलाहाबाद हाईकोर्ट का यह फैसला समाज में समानता, समरसता और राष्ट्रीय एकता को मजबूत करने की दिशा में एक क्रांतिकारी पहल है। यह देखना दिलचस्प होगा कि आने वाले दिनों में इसका राजनीतिक, सामाजिक और कानूनी असर प्रदेश और देश पर कैसा पड़ता है।