‘Metro…In Dino’ Review: मुंबई की बारिश, रिश्तों की खामोशी और अनुराग बसु की भावनात्मक सिनेमाई कविता

'Metro...In Dino' Review: मुंबई की बारिश, रिश्तों की खामोशी और अनुराग बसु की भावनात्मक सिनेमाई कविता
'Metro...In Dino' Review: मुंबई की बारिश, रिश्तों की खामोशी और अनुराग बसु की भावनात्मक सिनेमाई कविता

मुंबई: मुंबई की भीगी सड़कों, ट्रैफिक की आवाज़ और खिड़की पर टपकती बूंदों के बीच अनुराग बसु की नई फिल्म ‘मेट्रो… इन दिनों’ केवल एक फिल्म नहीं, एक एहसास है। यह एक ऐसा भावनात्मक सफर है जो दर्शकों को रिश्तों की जटिलता, खामोशी और उनकी अनकही सच्चाइयों से रूबरू कराता है।

यह एंथोलॉजी (कहानी-संग्रह) शोर-शराबे से दूर, बेहद संयमित और संवेदनशील तरीके से कहानी कहती है। संवादों से ज़्यादा यहां खामोशी बोलती है, और दृश्यों की भाषा वह कह जाती है जो शब्द नहीं कह पाते।

1. काजोल और मॉन्टी – रिश्तों की जमी हुई चुप्पी

कोंकणा सेन शर्मा और पंकज त्रिपाठी एक ऐसे दंपति की भूमिका में हैं जो शादी के सालों बाद भी साथ तो हैं, पर जुड़ाव कहीं खो चुका है। जब काजोल को अपने पति की डेटिंग ऐप पर सक्रियता का पता चलता है, तो वह सिर्फ बेवफाई नहीं, बल्कि सालों की चुप्पी और दबे हुए ग़ुस्से को उजागर करता है।

कोंकणा अपने किरदार में बेहद गहराई लाती हैं, जबकि पंकज त्रिपाठी की मासूमियत भरी शर्मिंदगी उन्हें मानव बनाती है, खलनायक नहीं। नीना गुप्ता एक ऐसी मां के किरदार में हैं, जो त्याग को प्रेम नहीं मानती और चाहती हैं कि उनकी बेटी वही ग़लतियां न दोहराए।

2. चुमकी और पार्थ – आधुनिक प्रेम की उलझनें

सारा अली खान और आदित्य रॉय कपूर आज के दौर की उस पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो जुड़ाव चाहती है पर जिम्मेदारी से डरती है। जहां चुमकी बेपरवाह और खोज में है, वहीं पार्थ शांत और स्थिर है। उनकी केमिस्ट्री अजीब है, पर आकर्षक। सारा का अभिनय बेहतर हुआ है, लेकिन आदित्य की गहराई के सामने कभी-कभी फीका पड़ जाता है।

श्रुति और आकाश – बंधन में फंसी अधूरी भावनाएं

अली फज़ल और फातिमा सना शेख एक ऐसे जोड़े की भूमिका में हैं, जिनका रिश्ता भावनात्मक रूप से समाप्त हो चुका है, पर वे उसे छोड़ नहीं पा रहे — आदत, डर और अनकहे भावों की वजह से। यह कहानी सबसे असहज है, लेकिन सबसे ज़्यादा सच्ची भी।

नीना गुप्ता और अनुपम खेर – उम्रदराज़ मोहब्बत का मीठा पल

इन दोनों वरिष्ठ कलाकारों की जोड़ी फिल्म की गंभीर कहानियों के बीच एक मधुर विराम है। उनकी कहानी कोलकाता की पुरानी गलियों की तरह है — धीमी, भावुक और जीवन के छोटे-छोटे पलों में बसी हुई।

संगीत – हर भावना की आत्मा

प्रीतम, पापोन और राघव चैतन्य के संगीत ने फिल्म को और भी गहराई दी है। हर ट्रैक एक बहती नदी की तरह फिल्म के भावनात्मक प्रवाह से जुड़ा है। बैकग्राउंड स्कोर मानसून की तरह लगातार बहता है — कभी धीमा, कभी बेचैन, पर हमेशा मौजूद।

निर्देशन और दृश्य सौंदर्य

अनुराग बसु का निर्देशन एक बार फिर साबित करता है कि वह संवेदनाओं के अनकहे रंगों को पर्दे पर उकेरने में माहिर हैं। सिनेमैटोग्राफी, रंग संयोजन और लोकेशन एक पुराने स्मृति-लोक की तरह हैं — थोड़े उदास, पर बेहद सुकूनदेह। फिल्म की बारिश खुद एक किरदार बन जाती है — जो कभी अव्यवस्था का प्रतीक है, तो कभी शुद्धिकरण का।

निष्कर्ष: क्या यह फिल्म आपके लिए है?

अगर आप तेज़ रफ्तार ड्रामा या क्लाइमेक्स के आदी हैं, तो ‘मेट्रो… इन दिनों’ शायद आपको धीमी लगे। लेकिन अगर आप फिल्मों में खामोशियों की आवाज़, अधूरी कहानियों की सच्चाई और रिश्तों की बारीकी ढूंढते हैं, तो यह फिल्म आपके लिए बनी है।

कुछ कहानियों में थोड़ी और गहराई हो सकती थी, कुछ किरदार अधूरे से लग सकते हैं — लेकिन शायद यही ज़िंदगी की सच्चाई है। फिल्म पूरी तरह बंद नहीं होती, बल्कि आपके दिल में थोड़ी देर और रुक जाती है। और शायद यही अच्छे सिनेमा की पहचान है।

रेटिंग: 4/5