Neeraj Ghaywan की फिल्म ‘Homebound’ क्यों गई ऑस्कार में, फिल्मी समझ वाले ही इस फिल्म को देंखे

Neeraj Ghaywan की फिल्म 'Homebound' क्यों गई ऑस्कार में, फिल्मी समझ वाले ही इस फिल्म को देंखे
Neeraj Ghaywan की फिल्म 'Homebound' क्यों गई ऑस्कार में, फिल्मी समझ वाले ही इस फिल्म को देंखे

नई दिल्ली: मशहूर निर्देशक नीरज घेवान ने लगभग एक दशक बाद अपनी नई फिल्म ‘होमबाउंड’ के ज़रिए हिंदी सिनेमा में एक बार फिर वापसी की है। 2015 में आई फिल्म मसान से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाने वाले नीरज ने ‘अजीब दास्तान्स’ की गीली पुच्ची जैसी यादगार कहानी के बाद कुछ वर्षों तक पर्दे से दूरी बनाए रखी। लेकिन इस बार उन्होंने जो सिनेमा रचा है, वह न सिर्फ एक फिल्म है, बल्कि एक सामाजिक और भावनात्मक दस्तावेज़ है—एक ऐसा बयान जिसे देखना हर दर्शक और हर नागरिक की जिम्मेदारी बनती है।

तीन किरदार, तीन संघर्ष

‘होमबाउंड’ की कहानी चंदन, शोएब और सुधा के इर्द-गिर्द घूमती है। ये तीनों किरदार उस समाज की तस्वीर सामने लाते हैं, जिसे अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है। चंदन एक दलित है, शोएब मुस्लिम, और दोनों अपनी पहचान से छुटकारा पाने की जद्दोजहद में हैं। दोनों मानते हैं कि वर्दी उन्हें वह सम्मान और सुरक्षा दे सकती है, जो उनकी जाति और मजहब नहीं दे पाए। फिल्म में एक मार्मिक दृश्य आता है, जब चंदन जनरल कैटेगरी से पुलिस भर्ती का फॉर्म भरता है और कहता है, “सही नाम लिखता हूं तो दूसरों से दूर हो जाता हूं, झूठा नाम लिखता हूं तो ख़ुद से दूर हो जाता हूं।”

यह संवाद ही नहीं, बल्कि एक पूरी पीढ़ी का मानसिक संघर्ष है जिसे नीरज घेवान ने बेहद संजीदगी से फिल्माया है।

कोविड महामारी की सबसे जरूरी झलक

‘होमबाउंड’ सिर्फ सामाजिक पहचान की बात नहीं करती, यह फिल्म कोविड महामारी के उस भुला दिए गए दौर को भी दोबारा जीने पर मजबूर करती है, जिसे दुनिया ने मानो जान-बूझकर भुला दिया। फिल्म आपको श्मशान के बीचोंबीच खड़ा कर देती है, जहां एक नहीं, अनगिनत लाशें जल रही हैं। यह महामारी की त्रासदी पर सिर्फ अफसोस नहीं जताती, बल्कि उस स्मृति को संरक्षित भी करती है जिसे इतिहास और सिनेमा दोनों ने अब तक गंभीरता से नहीं संभाला।

नीरज घेवान की यह कोशिश न सिर्फ साहसी है, बल्कि यह हिंदी सिनेमा की ओर से महामारी पर एक तरह की ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी की पूर्ति भी है।

अभिनय की नई ऊंचाइयों तक पहुंचे कलाकार

ईशान खट्टर और विशाल जेठवा ने अपने किरदारों को जिस गहराई से जिया है, वह काबिल-ए-तारीफ है। ईशान पहले भी अपनी प्रतिभा से प्रभावित कर चुके हैं, लेकिन विशाल जेठवा का प्रदर्शन इस बार उन्हें एक नई लीग में पहुंचा देता है। निर्देशक अब उन्हें नजरअंदाज नहीं कर सकते। वहीं जाह्नवी कपूर ने सुधा के किरदार में अपने करियर का सबसे दमदार और परिपक्व अभिनय प्रस्तुत किया है। उनकी मौजूदगी फिल्म को एक गहरी मानवीय संवेदना से भर देती है।

सिनेमा जो सिर्फ दिखाता नहीं, जगाता है

‘होमबाउंड’ वह फिल्म है जो थिएटर से निकलते समय दर्शक की जेब में कोई न कोई सवाल ज़रूर रख देती है। यह फिल्म बताती है कि सिनेमा का काम सिर्फ मनोरंजन नहीं, बल्कि याद दिलाना भी है याद दिलाना कि हम क्या थे, और अब क्या बन गए हैं। यह फिल्म सिखाती है कि उम्मीद अभी बाकी है, लेकिन आंखें खुली रखना जरूरी है।

‘होमबाउंड’ नीरज घेवान की एक ऐसी वापसी है जो सिर्फ फिल्मी नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और राजनीतिक घटना बन चुकी है। यह फिल्म उन कहानियों को आवाज देती है जिन्हें अक्सर दबा दिया जाता है। यह एक ऐसा अनुभव है जिसे देखे बिना इस दौर को समझना अधूरा रहेगा।

हिंदी सिनेमा को ऐसी फिल्मों की आज सबसे ज्यादा जरूरत है और ‘होमबाउंड’ इस जरूरत का एक शुद्ध, सशक्त और साहसी उत्तर है।

Pushpesh Rai
एक विचारशील लेखक, जो समाज की नब्ज को समझता है और उसी के आधार पर शब्दों को पंख देता है। लिखता है वो, केवल किताबों तक ही नहीं, बल्कि इंसानों की कहानियों, उनकी संघर्षों और उनकी उम्मीदों को भी। पढ़ना उसका जुनून है, क्योंकि उसे सिर्फ शब्दों का संसार ही नहीं, बल्कि लोगों की ज़िंदगियों का हर पहलू भी समझने की इच्छा है।