Editorial: लोकतंत्र में सत्ता का मतलब है जिम्मेदारी, लेकिन पीएम मोदी और उनकी सरकार की डरपोक संवाद शैली पर सवाल

Editorial: लोकतंत्र में सत्ता का मतलब है जिम्मेदारी, लेकिन पीएम मोदी और उनकी सरकार की डरपोक संवाद शैली पर सवाल
Editorial: लोकतंत्र में सत्ता का मतलब है जिम्मेदारी, लेकिन पीएम मोदी और उनकी सरकार की डरपोक संवाद शैली पर सवाल

नई दिल्ली: लोकतंत्र में सत्ता का अर्थ केवल प्रभुत्व या असहज सवालों से बचने का औजार नहीं होता, बल्कि इसके साथ बड़ी जिम्मेदारी भी जुड़ी होती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, जिन्हें उनकी संवाद क्षमता के लिए समर्थक और आलोचक दोनों ने सराहा है, अक्सर मुश्किल परिस्थितियों में चुप्पी साध लेने की प्रवृत्ति दिखाते हैं। यह चुप्पी, जो कभी सद्गुण माना जाता है, राजनीतिक संदर्भ में वास्तविकता से बचाव का प्रतीक बन जाती है।

पिछले एक दशक में देखा गया है कि मोदी जी चुनावी भाषणों में तो माहिर हैं, जहाँ वे टेलीप्रॉम्प्टर की सहायता से बड़े जनसमूह को मंत्रमुग्ध कर देते हैं और विपक्ष पर तीखे प्रहार करते हैं। लेकिन नेतृत्व केवल चुनावी भाषण देना नहीं है। संकट के समय देश के सामने खड़ा होना, निरंतर संवाद बनाए रखना एक सच्चे नेता की पहचान होती है। मोदी का अलग अंदाज तब दिखता है जब वे असुविधाजनक या मुश्किल सवालों से बचने के लिए गायब हो जाते हैं।

हाल ही में ‘ऑपरेशन सिंदूर’ पर राज्यसभा में बहस के दौरान उनकी अनुपस्थिति ने पूरे देश को चौंका दिया। वहीं, लोकसभा में सुरक्षा खामियों, लड़ाकू विमानों के नुकसान और अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप की मध्यस्थता पर जवाब न दे पाने से उनकी चुप्पी भय या संकोच का प्रमाण बन गई। विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने इस पर कटाक्ष करते हुए कहा, “दम है तो बोलो…”

मोदी ने नोटबंदी की घोषणा बड़े उत्साह से की, लेकिन इसके नतीजे जब आम जनता पर भारी पड़े तो वह नजर से ओझल हो गए। कोविड लॉकडाउन के दौरान भी उनकी मौजूदगी जाहिर थी, लेकिन दूसरी लहर की तबाही के वक्त और ऑक्सीजन संकट के समय उनका अंधकारमय गायब होना देशवासियों के लिए निराशाजनक रहा। किसानों के लंबित आंदोलन के दौरान वे प्रदर्शन स्थलों पर जाकर संवाद करने की हिम्मत नहीं जुटा पाए, जो जवाहरलाल नेहरू या इंदिरा गांधी के नेतृत्व में एक आम बात थी।

चीन के खिलाफ स्पष्ट रुख न अपनाना, क्रोनी कैपिटलिज्म पर सवालों का जवाब न देना, महिला पहलवानों के यौन उत्पीड़न के विरोध प्रदर्शन के प्रति उदासीनता, और मणिपुर की गृह युद्ध जैसी संवेदनशील घटनाओं पर मौन रहना मोदी सरकार की संवाद की इस शैली को दर्शाता है।

स्मार्ट सिटी मिशन का सपना अधूरा

2016 में 100 स्मार्ट शहरों के विकास का वादा किया गया था, लेकिन आज स्थानीय निवासी यह कहने लगे हैं कि उनका शहर ‘स्मार्ट’ नहीं हुआ। लगभग 1.5 लाख करोड़ रुपये की लागत से 8,063 परियोजनाओं के पूरा होने का दावा किया गया, लेकिन दिल्ली, नोएडा, गुरुग्राम, बेंगलुरु और पटना जैसी पिछली विकसित शहरों में भी बाढ़, ट्रैफिक जाम और बुनियादी समस्याएं जस की तस हैं। इसका मतलब यह है कि स्मार्ट सिटी मिशन ने शहरी भारत में वास्तविक परिवर्तन लाने में असफलता ही हासिल की है।

पोस्ट-ट्रुथ संवाद और मीडिया की स्थिति

झूठ बोले बिना लोगों को भ्रमित करना ही पोस्ट-ट्रुथ युग की संवाद कला है। सूचना एवं प्रसारण मंत्री के बयान से स्पष्ट होता है कि सरकार प्रेस की स्वतंत्रता पर प्रश्नों को गंभीरता से नहीं लेती। भारतीय मीडिया को जीवंत बताकर हर तरह के राजनीतिक दबाव और उत्पीड़न की अनदेखी की जा रही है, जबकि वास्तविकता इसके बिल्कुल विपरीत है।

चुनाव आयोग का तथ्य-जांच तंत्र विवादित

चुनाव आयोग ने विपक्ष के नेता राहुल गांधी के ‘वोट चोरी’ आरोप को ‘भ्रामक’ करार दिया है। आयोग के इस कदम से उसकी निष्पक्षता पर सवाल उठने लगे हैं। लोकतंत्र में चुनाव प्रक्रिया की पारदर्शिता बेहद महत्वपूर्ण है और चुनाव आयोग को सभी राजनीतिक दलों की चिंताओं को गंभीरता से सुनना चाहिए।

अंत में, यह याद रखना चाहिए कि लोकतंत्र में विश्वास तभी बनता है जब शासन तंत्र ईमानदारी और जवाबदेही के साथ कार्य करता है। सत्ता की चुप्पी और अनदेखी से देश की सबसे बड़ी पूंजी, जनता का विश्वास कमजोर हो सकता है।