आज 2 अक्टूबर है, ये दिन हमारे देश के लिए काफी खास है। इस दिन देश के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी व देश के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की जयंती है। महात्मा गांधी का जन्म 2 अक्टूबर 1869 को गुजरात के पोरबंदर जिले में हुआ था। वहीं, लाल बहादुर शास्त्री का जन्म 2 अक्टूबर 1904 यूपी के मुगलसराय में हुआ था। लाल बहादुर शास्त्री गांधी से काफी प्रभावित थे।
प्रारंभिक जीवन
देश के दूसरे कद्दावर पीएम लाल बहादुर शास्त्री साफ-सुथरी छवि के व्यक्ति थे। जितनी सादगी उनके व्यक्तित्व में थी उतनी ही उनकी भाषा भी मीठी थी। लाल बहादुर शास्त्री का जन्म 2 अक्टूबर 1904 को उत्तर प्रदेश के मुगलसराय में हुआ। उनका असली नाम “लाल बहादुर” था, लेकिन वे “शास्त्री” उपनाम से अधिक प्रसिद्ध हुए। उनका उपनाम “शास्त्री” उन्हें बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री के दौरान मिला, जहां उन्हें संस्कृत में उनकी विद्या के लिए सम्मानित किया गया।
शास्त्री जी का परिवार साधारण था, और उनके पिता एक शिक्षक थे। उनके जीवन में कठिनाइयों का सामना करते हुए, उन्होंने शिक्षा को प्राथमिकता दी। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा स्थानीय विद्यालयों से प्राप्त की और बाद में काशी हिंदू विश्वविद्यालय में दाखिला लिया।
स्वतंत्रता संग्राम में भागीदारी
लाल बहादुर शास्त्री का जीवन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से गहरे जुड़े हुआ था। 1920 में महात्मा गांधी के असहमति आंदोलन के दौरान वे सक्रिय रूप से भाग लेने लगे। उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल होकर स्वतंत्रता की लड़ाई में योगदान दिया। शास्त्री जी को कई बार गिरफ्तार किया गया, और उन्होंने जेल में भी समय बिताया। यह उनके अदम्य साहस और देशभक्ति का प्रतीक था।
ये सफर आसान नहीं
27 मई 1964 को जब भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू का निधन हुआ, तब देश राजनीतिक अनिश्चितता के दौर से गुजर रहा था। नेहरू के उत्तराधिकारी का चयन एक जटिल मुद्दा बन गया, क्योंकि उस समय किसी पूर्व निर्धारित उत्तराधिकारी की परंपरा नहीं थी। कई नेता इस पद के लिए दावेदारी पेश कर रहे थे, लेकिन अंततः लाल बहादुर शास्त्री की स्थिति मजबूत हुई।
लेकिन ये राह इतनी आसान थोड़ी थी, उस समय प्रधानमंत्री पद की दौड़ में गुलजारी लाल नंदा, जय प्रकाश नारायाण और मोरारजी देसाई शामिल थे, जो शास्त्री को कड़ी टक्कर दे रहे थे। उस समय गुलजारी लाल नंदा थे तत्कालीन गृह मंत्री थे और इस लिहाज से मंत्रिमंडल में भी वो दूसरे स्थान पर थे। वहीं, मोरारजी देसाई भी थे, जिनका मंत्रिमंडल के बाहर बहुत गहरी छाप थी और जय प्रकाश नारायण भी अपने करिश्माई व्यक्तित्व के लिए शुमार थे। नेहरू के बाद ऐसे तो बहुत से नाम आगे आए लेकिन धीरे-धीरे बात मोरारजी देसाई और शास्त्री पर आकर रूक गई। उस समय के कांग्रेस अध्यक्ष कामराज की सबसे बड़ी चिंता थी पार्टी की एकता को बनाए रखना।
शास्त्री बने प्रधानमंत्री
शास्त्री और मोरारजी के बीच शास्त्री का पलड़ा भारी होने की दो वजहें थी, एक तो तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष कामराज मोरारजी देसाई के खिलाफ ही थे। दूसरा अखबारों में एक खबर छपी कि मोरारजी देसाई के पक्ष में उनके समर्थक दावेदारी कर रहे हैं। इससे पार्टी में यह संदेश गया कि मोरारजी पीएम बनेंगे तो पार्टी के नेता नाराज हो सकते हैं, यही खबर ही मोररजी के खिलाफ गई और शास्त्री के नाम पर मुहर लग गई। फिर 31 मई 1964 को लाल बहादुर शास्त्री के रूप में देश को दूसरा प्रधानमंत्री मिल गया। खास बात यह थी कि उस दौरान खुद शास्त्री भी अपने आपको पीएम पद का दावेदार नहीं मानते थे उनका मानना था कि नेहरू का उत्तराधिकारी इंदिरा या फिर जेपी नारायण हो सकते हैं। पर इतिहास को कुछ और मंजूर था।
शास्त्री जी का कार्यकाल
प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की मौत के बाद यह दुविधा थी कि किसे प्रधानमंत्री बनाया जाए। एक नाम सभी के सामने था। लाल बहादुर शास्त्री का। 9 जून 1964 को वह देश के दूसरे प्रधानमंत्री बनें। केवल 18 महीने तक वो इस पद पर रहे। बता दें कि जब पाकिस्तान ने 1965 में भारत पर हमला किया तो उन्हें ये लग रहा था कि धोती-कुर्ता पहनने वाला छोटे कद ये प्रधानमंत्री कमजोर है। लेकिन शास्त्री जी ने कड़ा रुख अपनाया और पाकिस्तान पर हमले का आदेश दे दिया। इस दौरान पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान थे। पाकिस्तान के इस युद्ध में भी हार का सामना करना पड़ा। इसके बाद भारत और पाकिस्तान के बीच अमेरिका ने हस्तक्षेप किया। 1966 में ताशकंद में युद्ध विराम के समझौते पर हस्ताक्षर हुआ। लेकिन उसी रात शास्त्री जी की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो गई।
भारतीय सेना की ताकत
1965 का भारत-पाकिस्तान युद्ध शास्त्री जी के प्रधानमंत्री बनने के बाद का एक बड़ा संकट था। उस समय, जब पाकिस्तान ने भारतीय सीमाओं पर आक्रमण किया, शास्त्री जी ने दृढ़ता और साहस के साथ भारतीय सेना को प्रेरित किया। उन्होंने भारतीय सेना को आधुनिकतम उपकरणों और संसाधनों से लैस करने का काम किया। उनकी रणनीति और निर्णय लेने की क्षमता ने न केवल भारतीय सेना की ताकत को बढ़ाया, बल्कि देशवासियों में भी आत्मविश्वास भरा।
की विदेश नीति
लाल बहादुर शास्त्री की विदेश नीति भी विशेष थी। उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता के बाद एक संतुलित और समृद्ध विदेशी नीति का निर्माण किया। उन्होंने अन्य देशों के साथ मित्रता और सहयोग को बढ़ावा दिया। उनकी नीति ने भारत को एक मजबूत स्थिति में खड़ा किया, जिससे बड़े देशों के बीच भारत की पहचान बनी। शास्त्री जी के नेतृत्व में भारत ने कई महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अपनी आवाज़ उठाई।
शास्त्री जी और उनके आश्चर्यजनक कार्य
जब देश ने किया एक दिन का उपवास
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत के वो प्रधानमंत्री भी रहे। उनकी सादगी और ईमानदारी का हर कोई कायल है। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि साल 1965 में जब भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध हुआ। तो उस समय देश में अनाज की बारी किल्लत हो गई थी। उस दौरान उन्होंने देशवासियों से अपील की थी कि सप्ताह में केवल एक दिन सभी लोग उपवास रखें। कहते हैं ना कि किसी नियम को अगर दूसरों पर लागू करना हो तो उसका प्रयोग पहले खुद पर करना होता है। शास्त्री जी ने भी ऐसा ही किया। उन्होंने इस उपवास की शुरुआत अपने परिवार से ही की। सबसे पहले अपने पूरे परिवार को उन्होंने दिनभर भूखा रखा, इसके बाद पूरे देश से अपील की। इसका असर ये हुआ कि पूरे भारत में एक दिन का उपवास लोग रखने लगे।
1965 की जंग
जवाहर लाल नेहरू के निधन के बाद 9 जून 1964 को लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे। बता दें कि शास्त्री लगभग 18 महीने ही देश के प्रधानमंत्री रहे। शास्त्री जी के ही कार्यकाल के दौरान भारत ने 1965 की जंग जीती थी। उस समय पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान थे। नेहरू के इंतकाल के बाद पाकिस्तान ने 1964 में शास्त्री जी के साथ एक बैठक की। बैठक के बाद शास्त्री से अयूब खान की मुलाकात भी हुई थी। इस मुलाकात में अयूब खान ने शास्त्री की सादगी देख सोचा कि हम कश्मीर को जबरन हासिल कर सकते हैं। वहीं अयूब खान गलती कर गए और कश्मीर हथियाने अगस्त 1965 में घुसपैठियों को भेज दिया। शास्त्री के सादगी से धोखा खाए अयूब को यह जंग भारी पड़ गया। जब पाकिस्तानी आर्मी ने चंबा सेक्टर पर हमला बोल दिया तो शास्त्री जी ने भी पंजाब में भारतीय सेना से मोर्चा खुलावा दिया। नतीजा ये हुआ कि भारतीय सेना लाहौर कूच कर गई और सैकड़ों एकड़ जमीन पर कब्जा कर लिया। अब अयूब खान को गलती का एहसास हुआ। फिर UN के पहल पर 22 सिंतबर को जंग रूका।
ताशकंद की कहानी
इसी के बाद ताशकंद की कहानी शुरू होती है। 1965 की इस जंग के बाद भारत और पाकिस्तान की कई दफा बातचीत को बाद एक दिन और जगह चुना गया ताशकंद। सोवियत संघ के तत्कालीन पीएम एलेक्सेई कोजिगिन ने समझौते की पेशकश की थी। इस समझौते के लिए ताशकंद में 10 जनवरी 1966 का दिन तय हुआ। इस समझौते के तहत 25 फरवरी 1966 तक दोनों देशों को अपनी-अपनी सेनाएं बार्डर से पीछे हटानी थीं। समझौते पर साइन करने के बाद 11 जनवरी की रात में रहस्यमय परिस्थितियों में लाल बहादुर शास्त्री का निधन हो गया।
मौत से जुड़े राज
इस समझौते के बाद शास्त्री दबाव में थे। जानकार बताते हैं कि पाकिस्तान को हाजी पीर और ठिथवाल वापस देने की वजह से देश में शास्त्री की आलोचना हो रही थी। तब सीनियर जर्नलिस्ट कुलदीप नैयर उनके मीडिया सलाहकार थे। नैयर ने ही शास्त्री के मौत की खबर उनके परिजनों को बताई थी। बीबीसी को दिए इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि हाजी पीर और ठिथवाल को पाकिस्तान को दिए जाने से शास्त्री की पत्नी खासी नाराज थीं। यहां तक उन्होंने शास्त्री से फोन पर बात करने से भी मना कर दिया था। नैयर बतातें हैं कि शास्त्री जी अपनी बेटी से देश का हाल पूछते हैं और वहां से भी उनको निराशा ही हाथ लगी। इस बात से शास्त्री जी को बहुत चोट पहुंची थी। अगले दिन जब शास्त्री के मौत की खबर मिली तो पूरे देश के साथ वह भी हैरान रह गई थीं। कई लोग जहां दावा करते हैं कि शास्त्री जी को जहर देकर मारा गया। तो, वहीं कुछ लोग कहते हैं उनकी मौत दिल का दौरा पड़ने से हुई।