‘Maa’ Review: काजोल की दमदार वापसी, ‘शैतान’ के बाद डर और भावना का एक नया अध्याय

‘Maa’ Review: काजोल की दमदार वापसी, ‘शैतान’ के बाद डर और भावना का एक नया अध्याय
‘Maa’ Review: काजोल की दमदार वापसी, ‘शैतान’ के बाद डर और भावना का एक नया अध्याय

मुंबई: ‘शैतान’ की सफलता के बाद अब अजय देवगन और ज्योति देशपांडे की प्रोडक्शन कंपनी एक और सधी हुई हॉरर फिल्म ‘मां’ लेकर आई है। इस बार स्क्रीन पर काजोल छा गई हैं और फिल्म ने यह साबित कर दिया कि डर सिर्फ चीखों या भूतों से नहीं, बल्कि भावना और प्रतीकों से भी पैदा किया जा सकता है।

कहानी

फिल्म की कहानी अंबिका (काजोल) और उसके परिवार की है, जो शहर में रहते हैं लेकिन उनका संबंध एक ऐसे गांव चंदरपुर से है, जहां एक प्राचीन श्राप छिपा हुआ है। अंबिका का पति शुवंकर (इंद्रनील सेनगुप्ता) गांव जाने से हमेशा बचता है और अपनी बेटी श्वेता (खेरीन शर्मा) को वहां के बारे में कुछ नहीं बताता।

हालात कुछ ऐसे बनते हैं कि शुवंकर को गांव लौटना पड़ता है और जब वह वापस नहीं आता, तब अंबिका अपनी बेटी के साथ चंदरपुर जाती है। वहीं से शुरू होता है भयावह अनुभवों का सिलसिला और एक मां का युद्ध एक राक्षसी ताकत से।

दूसरा भाग है असली हीरो

फिल्म का दूसरा हिस्सा पूरी तरह काजोल के अभिनय का मैदान बन जाता है। अंबिका के रूप में उनका दर्द, क्रोध और ममता सब कुछ परदे पर उतर आता है। हर सीन कहानी को एक बड़े क्लाइमेक्स की ओर ले जाता है।

लेखन और निर्देशन

साईंवन क्वाड्रस की लेखनी लाजवाब है। खासकर, पौराणिक राक्षस रक्तबीज और काल्पनिक किरदार ‘अम्सजा’ को मिलाकर बनाई गई यह कथा श्रद्धा और कल्पना का बेहतरीन संगम है। संवाद लेखकों अजित जगताप और आमिल कियान खान ने भी दमदार काम किया है।

निर्देशक विशाल फुरिया, जो ‘छोरी 2’ के बाद फिर लौटे हैं, इस बार अपनी गलतियों से सबक लेते नजर आते हैं। फिल्म में कई सीन जैसे – सिर्फ मां ही बच्चे के रोने की आवाज़ सुन सकती है, अंबिका का विष को छूते ही उसका असर खत्म होना या काली पूजा का दृश्य – इन सबमें निर्देशक की सोच और कलात्मकता झलकती है।

अभिनय

काजोल ने पूरी फिल्म को अपने कंधों पर उठा रखा है। वह एक ही समय में एक दर्दभरी पत्नी, एक मजबूर मां और एक देवी-समान शक्ति का रूप धारण करती हैं। रोनित रॉय ने भी अपनी भूमिका में गहराई दिखाई है, हालांकि उनकी शुरुआती बंगाली-हिंदी मिली भाषा थोड़ी अखरती है। इंद्रनील सेनगुप्ता सीमित स्क्रीन समय में प्रभाव छोड़ते हैं।

सर्ज्यशिखा दास (नंदिनी) और रूपकथा चक्रवर्ती (दीपिका) का काम शानदार है। वहीं खेरीन शर्मा (श्वेता) की कास्टिंग थोड़ा कमजोर पक्ष बनती है – उनके एक्सप्रेशन्स सीमित हैं और वे दर्शक से जुड़ नहीं पातीं।

तकनीकी पक्ष

फिल्म का वीएफएक्स कुछ जगहों पर थोड़ा कमजोर लगता है, लेकिन इसकी भरपाई मजबूत लेखन और निर्देशन कर देता है। दो गानों की सीमित उपस्थिति भी एक स्मार्ट निर्णय है। फिल्म का पोस्ट-क्रेडिट सीन ‘शैतान’ की थीम के साथ इसकी मल्टीवर्स की झलक देता है।

निर्णय

‘मां’ एक बेहतरीन हॉरर अनुभव है, जो थियेटर में ही पूरी तरह महसूस किया जा सकता है। यह सिर्फ डराने के लिए नहीं बनी, बल्कि दर्शकों को भावनात्मक रूप से झकझोरने के लिए भी है।

रेटिंग: ⭐⭐⭐⭐ (3.5/5)
अगर आप असली हॉरर सिनेमा देखना चाहते हैं, तो ‘मां’ को मिस न करें। यह डर के साथ-साथ एक मां की ममता की भी कहानी है – सशक्त, संवेदनशील और सिनेमाई तौर पर सधी हुई।

‘हर मां, मां नहीं होती… पर जब होती है, तो राक्षस भी कांपते हैं।’